मनुष्य भय से, निवृत्ति चाहता है:

– Shri Rajendra

किसी भी खण्ड वस्तु के प्रति आसक्ति, एवं उसके लुट जाने या छूट जाने का भय, अवसाद को जन्म देता है। मनुष्य  एक मजबूत आधार चाहता है। एक श्लोक है ,

“भोगे रोग भयं, गुणे खल भयं, रूपे तरुण्य भयं; कुले च्युति भयं, माने दैन्य भयं, वित्ते नृपालादभयं। बले रिपु भयं, शास्त्रे वादी भयं, काये कृतान्ताद् भयं; सर्वं वस्तु भयान्वितं, भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं॥”

भावार्थ है :

“भोग में रोग का भय; गुणों में अपराध का भय; सौंदर्य में वृद्धावस्था का भय; वंश में पतन का भय; सम्मान में अपमान का भय; शक्ति में शत्रुओं का भय। बल में पराजय का भय; ज्ञान में तर्कों का भय; शरीर में मौत का भय;

इस  तरह इस संसार में सभी उपलब्धियां achievements, भय से भरी हैं;

केवल वैराग्य-साधना  ही निर्भय बनाता है।”

यह श्लोक, भय के सामान्य स्वरूप को उजागर करता है, और सुझाव देता है कि असली निर्भयता केवल वैराग्य-साधना  के माध्यम से ही, प्राप्त की जा सकती है।

 एक  दूसरा श्लोक उपनिषदों से है, इसमें दिव्य यानि cosmic consciousness के  उत्पत्ति और सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है:

“एषह देवो प्रदिशोऽनुसर्वाः पूर्बोहजातः स उ गर्भे अन्तः।

स एव जात: स जनिष्यमानः प्रत्याङ जनानस्तिष्ठते सर्वतोमुखः।”

इसका  अर्थ है:

“यह वास्तव में वह देवता (ईश्वर) हैं,  जो सभी दिशाओं का नियंत्रण करते  हैं । वह पहले जन्म लेता है; वह गर्भ में भी है। वह  जन्म लेने वाला है; वह सभी प्राणियों में स्थित है, सभी दिशाओं में विद्यमान है।”

यह श्लोक, दिव्य (cosmic consciousness) को सभी अस्तित्व का उत्पन्नकर्ता और पोषक के रूप में चित्रित करता है, जो हर जगह और सभी प्राणियों में मौजूद है। जिन्हें हम कहते हैं की कण कण मे भगवान है, he is even witnessing our breathing , our thoughts.

श्री श्री आनन्दमूर्तिजी  कहते हैं, “दुनिया में जितने अभिप्रकाश हैं , जितनी  तरंगें  हैं। उन सबों की उत्पत्ति ,एक मूल विन्दू है। जिसे हम विश्वब्रह्माण्ड का  न्यूक्लियस कह सकते हैं। विश्वब्रह्माण्ड के प्राण केन्द्र कह सकते हैं। वो बिन्दू नहीं रहने से, तरंगें टिक नहीं सकती हैं । वह जो बिन्दू है यह है क्या?, वो है Witnessing entity, Supreme subjectivity of the expressed objective universe, और यह बिन्दू, विटनेसिग एन्टीटी होने के कारण Cognitive entity होने के कारण। वो क्या हैं, वो निश्कल हैं, परमपद हैं, और उसकी गति है सरल रेखाकारा, तो उन्हें प्राप्त करने से, उनमें प्रतिष्ठित होने से, होता है क्या, सभी तरंगों का उत्स उस एक विशेष विन्दू से हुआ है, तो जितनी तरंगें हैं सब उन पर आधारित हो जाती है, अत:  उनमें प्रतिष्ठित होने पर,और किसी में प्रतिष्ठित होने की आवश्यकता नहीं रहती है, चाह नहीं रह जाती  है।“

इसलिए आनंद्सुत्रम में कहा गया है:

तस्मिन उपलब्धे, परमा तृष्णा निवृत्तिह,

मनुष्य अपनी तृष्णा को मिटाने के लिए क्या करते हैं?

विभिन्न वस्तुओं को पाने की कोशिश करते हैं। वस्तुओं को माने, किसी प्रकार की तारंगिक अभिव्यक्तियों  को पाने की कोशिश करते हैं। जिस मूल बिन्दू में प्रतिष्ठित होने से ,सभी तरंगे / सभी मानशिक रंग, उनमें आधारित हो जाते  हैं। वहां किसी विशेष तरंग को पाने के लिए, किसी विशेष प्रचेष्टा की जरूरत नहीं रहती है, इसलिए परमा तृष्णा निवृत्तिह होती है। वही है वैराग्य की स्थिति। उस स्थिति को पाने के बाद, किसी और को पाने की ख्वाईश नहीं रहती।

उस समय कोई खण्ड वस्तु, मन को अपने रंग में नहीं रंग सकेगी। उस समय, मनुष्य सचमुच ही वर्णातीत हो जाएगा। उस समय, उसके  सान्निध्य में जो भी खण्ड-वस्तु आयेगी, वह  उसका केवल, उपयुक्त व्यवहार कर सकेगा।  उसके सामने ब्रह्म का, जो पिता-रूपी विकाश है, उसकी सेवा कर, उनके सुख का खयाल  रखकर, वह  उनके साथ, उचित व्यवहार कर पाएगा। उदाहरनार्थ, किसान के  सामने ब्रह्म का जो भूमि रूपी विकाश है, उसमें कृषि कार्य कर,  वह उसकी उर्वरता शक्ति को बढ़ाकर, उसके साथ उचित व्यवहार करेगा ,इसी तरह, विषयों के उचित व्यवहार करते जाने पर विषय, मनुष्य  मन को जड़त्व की ओर नहीं ले जा सकेंगे और वह निर्भय होगा । इसी को प्रकृत वैराग्य कहते हैं।

विराग शब्द से, वैराग्य शब्द की उत्पत्ति होती है। राग शब्द का अर्थ रङ्ग होता है। जिस साधना के द्वारा, खण्ड वस्तु के प्रति, विराग होता है, अर्थात् आकर्षण से मन नहीं रंगता  है, वही वैराग्य-साधना है। इस यथार्थ वैराग्य साधना के भीतर से, विश्व की प्रकृत ब्राह्मी-सत्ता ,मनुष्य के निकट स्फुरित हो उठती है। यह ब्राह्मी-सत्ता ही ,मनुष्य की प्रकृत आश्रय है, मजबूत भित्ति है, जो किसी काल में भी, उसे कङ्गाल कर, दूर नहीं हो जायेगी। इसी ब्राह्मी आश्रय में, निर्भयता से, अपने को मनुष्य अनन्त-काल तक प्रतिष्ठित कर रख सकता है , और, इस भय से निवृत्ति संभव है ,आध्यात्मिक साधना सके द्वारा , जिसका आधार है, यम-नियम ,(मोरालिटी)। नैतिकता ,एक अच्छे नागरिक का गुण है, कर्तव्य है ।

वैराग्य का अर्थ, रिनन्सिएशन वा त्याग, वा स्त्री,पुत्र,परिवार आदि सब को छोड़कर, हिमालय में भाग जाना नहीं है। प्रउत  इस तरह की पलायन-वृत्ति का घोर विरोधी है। धर्मसाधना( spiritual meditation), व वैराग्य अनुशीलन, गृहस्थ धर्म का अङ्ग है। जिन लोगों के मन में, वैराग्य के नाम पर, सब कुछ छोड़कर भाग जाने की भावना है, उन लोगों के मन में ,पराजित सुलभ वृत्ति ही है। चोर पुलिस के भय से, देनदार देने के भय से, शोकग्रस्त शोक नहीं सह सकने के कारण, इसी तरह के मनुष्य, तथाकथित वैराग्य का आश्रय लेते हैं। इस तरह के वैरागी, संसार के घात-प्रतिघात को सहन करने की शक्ति नहीं रखते। वे अपनी कापुरुषता को बड़ी-बड़ी बातों को आड़ में, छिपा कर रखना चाहते हैं। तथाकथित वैरागी होने पर भी, उनके मन में सांसारिक मोह का आकर्षण कम नहीं रहता है। इस लिये वे मूलअर्थ को न समझ, हठात पूर्वक, तथाकथित त्याग साधना करते हैं। फलस्वरूप उनमें से अधिकांश पथभ्रष्ट ही होते हैं।

Ref:

1.The base of life ( By shrii shrii Anandamurti )

2. अनुकूल वेदनीयम सुखम ( AMPS Publication)

3. आनन्द सूत्रम

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