– कृपशंकर
गतांक से आगे
‘स्वामित्व का अधिकार’ के विधान के कारण कोई बहुत अमीर है, कोई अति गरीब है।धन- उपार्जन और संग्रह की सामर्थ्य व्यक्ति-व्यक्ति में एक समान नहीं रहने के कारण धरित्री का सीमित संपद सबको समान रूप से उपलब्ध नहीं हो सकता। अतएव इस विधान ने अमीरी और गरीबी की गहरी खाई खोद रखी है। इसके कारण चंद लोग अमीरों के उत्तुंग शिखर पर हैं और बहुत बड़ी संख्या में जनाबादी दरिद्र है। शरीर रक्षा की न्यूनतम आवश्यकता की वस्तुओं की उपलब्धता के अभाव के कारण नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। जीवन जीने की सुविधा के अभाव के कारण समाज में नाना प्रकार की बुराइयों का जन्म होता है। जिन युवकों में रोष होता है वे हथियार उठाकर अपराध के दलदल में उत्तर पड़ते हैं ।चोरी करने लगते हैं। बूढ़े, विकलांग बच्चे भिक्षा को अपनी जीविका बना लेते हैं। कितनी महिलाओं को जीवन के रक्षा हेतु अवांछित जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता है। भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, अशिक्षा और अपराध का नारकीय जीवन इनकी नियति बन जाती है ।तथाकथित बड़े लोग इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं ।इन्हें देखकर सहानुभूति की संवेदना किसी को नहीं होती। धर्मजीवी की दृष्टि में इनका नारकीय जीवन इनके पूर्व जन्मों के पाप के कारण है। राजनीतिकगण इनकी दीनता का राजनीतिक लाभ उठाने हेतु कुछ अवदानों की घोषणा कर इनके मुंह पर चरणामृत के कुछ छीटा-छींटकर अपने कर्तव्य का इतिश्री कर लेते हैं। अखबारों और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपने नाम प्रचारित करा कर वाहवाही लूटते हैं। स्वामित्व के विधान ने अधिसंख्य जन समुदाय को अभिशप्त जीवन जीने के लिए विवश किया है। संपूर्ण विश्व का कमोवेश यही परिदृश्य है।इसी अवस्था को देखकर कहा गया है -“बुभुक्षितं किंन करोति पापम।” ( भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं करता ! )
अब थोड़ा उनको देखा जाए जो अमीरी के उच्चासन पर बैठे हैं।अमीरी भी एक भयंकर मद (नशा) है जो मनुष्य को मदमस्त (बेहोश )कर देती है ।इस बेहोशी में एक किसी प्रकार का कुकर्म पाप करने से संकोच नहीं करते ।
कनक कनक ते सौ गुणा, मादकताअधिकार,
एक खाय बउराय नर, एक पाय बउराय।।
अमीरी का विलासी जीवन अक्सर लंपट बना देता है। जैसे-जैसे इनका धन संग्रह बढ़ता जाता है, वैसे वैसे इनमें लोभवृति बढ़ती जाती है और धन संग्रह की भूख बढ़ती जाती है ।परिणामत: ये किसी भी प्रकार का अनर्थ करने से संकोच नहीं करते ।कालाबाजारी, खाद्य वस्तुओं में मिलावट ,मुनाफाखोरी, बाजार में उपभोक्ता की वस्तुओं का अभाव निर्माण (जमाखोरी) सभी प्रकार के करों की चोरी ,घाट तौल ,बड़ी (कंपनियों के पैक पर अंकित वजन बाजार में तौल करने से सही नहीं होता ), इन्हें खाद्य तेलों में मिलावट की छूट सरकारें दे रखी है, कंपनियां कितनी मिलावट करती हैं वही बता सकती हैं। बेशुमार मूल्य निर्धारण कर अकूत मुनाफा कमाना इनका वैधानिक अधिकार है। धन के लिए ये कुछ भी करने में संकोच नहीं करते। देश के छदम प्रशासक ये कुबेर ही हैं, जिनके रूपयों के बल पर राजनीतिक दलें चुनाव लड़ कर सत्ता का काबीज करती हैं ।
यह धनकुबेर तर्क देते हैं कि वाणिज्य प्रतिष्ठानों को खोलकर तथा उद्योगों को लगाकर हम नौकरिया देकर लोगों का उपकार करते हैं। इस प्रकार ये दयालु और धर्मात्मा होने का प्रचार करते हैं। सच्चाई यह है कि इन श्रमिकों के श्रम के द्वारा अपनी तिजोरीयां भरते हैं। वस्तुतः उन श्रमिकों को उनके श्रम का उचित मूल्य ही नहीं देते।ये कुवेर केवल धन देखते हैं मनुष्य इन्हें दिखाई नहीं देता ।इनकी पूजा- पाठ, ध्यान- धारणा धार्मिक मान सब कुछ पैसा है ।धन के पीछे दौड़ने के कारण पुराणों में इन्हें हिरण्यकशिपु कहा गया है। इनकी आसूरी मानसिकता के कारण समाज गरीबी ,कुपोषण बेरोजगारी, अपराध, नैतिकता ,न्याय आतंकवाद आदि समस्याओं से त्रस्त व जर्जर है ।वर्तमान विश्व का प्राकृतिक परिवेश इन्हीं की स्वार्थपूर्ण लोलुप दृष्टि की बलि चढ़ा है। वन संपद, जल सम्पद, भूसंरक्षण,वायुमण्डल के प्राकृत परिवेश का नाश व प्रदूषण इन्हीं की लोभवृति का शिकार हुआ है ।इन्होंने ही अपनी विभिन्न मीडिया द्वारा प्रचारित कर धन संग्रह की लोभ वृत्ति जगा कर संपूर्ण मानव समाज को धन के पीछे दौड़ने के लिए पागल बनाया है। अपसंस्कृति का प्रचार कर व अभद्र दृश्य दिखा कर इन्हीं लोगों ने मनुष्य समाज को यौन सुख के पीछे पागल होकर दौड़ने के लिए विवश किया है। आज छात्र धनार्जन के लिए पढ़ते हैं ज्ञानार्जन के लिए नहीं।ये कुबेर सब को अपना गुलाम बनाने के प्रयास में रहते हैं। धन के स्वामित्व के कारण विकसित सामाजिक मनोविज्ञान के कुप्रभाव से पिता-पुत्र, पति -पत्नी, भाई-बहन, आस-पड़ोस ,गुरु-शिष्य सभी की कलह द्वेष घृणा व परस्पर संघर्ष के शिकार हैं। समाज से आज एक दूसरे के साथ विश्वास, प्रेम, ममता, सहानुभूति, दया, माया सहिसुणता इत्यादि मधुर भाव नष्ट हो गए हैं। आज माल मवेशी पशु पक्षी मानव सबका मूल्य पैसे से किया जाता है । इस अप्राकृतिक और अमानवीय विधान से समाज के एक व्यक्ति का भी कल्याण अथवा भला नहीं हुआ। मानव समाज को इसने अपार क्षति की है । अमीर, गरीब ,राजनेता , सामान्य जन ,सबका इसने पतन किया । यह संक्रामक रोग मनुष्य के मन में घुसकर मनुष्य को अनैतिकता की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है । मनुष्य अविवेकी होकर इसका शिकार होता रहता है । इस मनोरोग से सुरक्षा के निमित्त यम- नियम में एक विधान है ‘अपरिग्रह’। बहुत अभ्यास के फलस्वरूप एक साधक इस रोग से अपनी रक्षा कर सकता है लेकिन समाज की रक्षा के लिए इस अप्राकृतिक विधान को वज्र कठोर होकर निरस्त करना ही होगा अन्यथा मनुष्य को ,मनुष्यत्व को बचाना असंभव है । इस मनोरोग की उपयुक्त चिकित्सा आज समाज के समक्ष प्रथम कर्तव्य है। लोकतंत्र में इस संक्रामक मानसिक रोग के पोषण का खूबसूरत व अनुकूल परिवेश पाया जाता है।इसलिए लोकतंत्र शासन प्रणाली से अनैतिकता, अधर्म को दूर करना असंभव है। फलत: लोकतंत्र में पग-पग पर अनैतिकता का नग्न तांडव एक स्वाभाविक घटना हो गई है। वस्तुतः लोकतांत्रिक सरकारें इस अप्राकृतिक विधान का पोषण करती हैं।
इसके फल- फलाफ़ल पर विचार गतांक से आगे…